दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l
समाज और परिवार
कुछ व्यक्तियों के सामूहिक रूप से रहने पर बनता है l हर व्यक्ति किसी-न-किसी
परिवार का सदस्य रहा है या फिर है। समाज और परिवार के लोगो मे एक दूसरे के साथ आपस
में कुछ रिश्तों के, बंधन से भी जुड़े होते हैं, जेसे माता-पिता, दादा दादी, चाचा चाची, मामा मामी, मौसा मौसी, बेटा-बेटी, भाई-बहन और ताऊ ताई इत्यादि । ये रिश्ते
एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सम्मान, सहनशीलता, शिष्टता, विश्वास, ईमानदारी, साहस और अनुशासन जेसे मानवीय गुणों से बंधे रहते हैं और एक मजबूत, सुखी परिवार और समाज की रचना करते हैं |
जब पिता अपने
बेटे से गुस्से में कुछ कहता है तो बेटे की सहनशीलता और शिष्टता बेटे को पिता की
डांट चुपचाप बिना विरोध किये सुनने को प्रेरित करती है । पत्नी, बेटा और बेटी सब पिता को मुखिया मान के उसका सम्मान करते हैं और उसके अनुशासन में रहते हैं | इसी तरेह पति-पत्नी के बीच प्रेम, विश्वास और ईमानदारी
दोनों को एक दूसरे का अटूट अंग बना देते हैं और जीवन भर का अटूट रिश्ता बन जाता है
। जिसे हम संयुक्त परिवार और समाज कहते है l
वर्तमान में
संयुक्त परिवार बिखर रहे है । अब नाम मात्र के ही संयुक्त परिवार बचे हैं l
एकल परिवार की आंधी में कोई ऐसा आदर्श एकल
परिवार भी नहीं हैं जिसके सदस्य सुखपूर्वक रहते हों । अक्सर देखा गया है कि लोग
अपनी बातों में कहते हैं 'जमाना बदल गया है'
क्या वास्तव में जमाना बदल गया है जब इस बात पर
गौर करे तो पाते हैं कि जमाना तो वहीं का वहीं है l हाँ कुछ स्वार्थी लोगो ने परिवार और समाज के बिखराव का अपने
राजनैतिक स्वार्थ के लिए आर्थिक और सामाजिक स्तर पर समाज को जब चाहा जैसा चाहा
बदलाव कर दिया, चाहे वो समाज के
लिए सही हो या ना हो ।
आज हम लोकतंत्र
की सीढ़ी पर खड़े हैं । जहाँ सरकार और समाज लोककल्याण के लिए नीति तो बनाते है पर
वो नीतियां लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं । जब हमें स्वतंत्रता
मिली थी, तब हमारे नेताओ में बदलाव
की राजनीति थी, परन्तु आज के
नेताओ में बदले की राजनीति हैं । उस दौर के नेताओं में और इस दौर के नेताओं में
सिर्फ इतना सा फर्क हैं, उस दौर में समाज
विकास के लिए संघर्ष करते थे और आज इस दौर में एक दुसरे से बदले के लिए लड़ रहे है,
जिसका परिणाम विकास का रास्ता बंद हो जाता है l
गुलामी से लेकर आज़ादी
तक के सफ़र की बात करें, तो हम कह सकते है कि उस समय हम आर्थिक रूप से ज्यादा मजबूत
नहीं थे परन्तु आपसी रिश्तो से ताकतवर थे l उस दौर में अगर गाँव में कोई एक व्यक्ति पिछड़ता
था, तो पूरा गाँव उसका साथ देता था । वर्तमान दौर में अगर कोई भाई पिछड़ जाये
तो उसका साथ उसका भाई भी नहीं देता । आज चाहे हमारी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई हो, पर ये कहना भी गलत नहीं होगा कि आज हम रिश्तों में बहुत कमजोर हो रहे हैं । इसी
कमजोरी के कारण आज समाज का दायरा कम होता जा रहा हैं ।
दशको पहले लोग
संयुक्त परिवार में रहकर बहुत खुश रहते थे, आज लोग एकल परिवार में
रहकर भी खुश नहीं रह पा रहे है,
आज बेटे को बाप नहीं समझ
रहा और बाप को बेटा नहीं समझ रहा,
एक-दुसरे पर सब बोझ समझते
हैं । पहले परिवार साफ-सुथरे सरोवर की तरह होता था, जिसमें कमल ही कमल खिले होते
थे। आज के परिवार में ना तो सरोकार का सरोवर है और ना ही कमल रूपी संस्कार है ।
समाज व परिवार रूपी
सरोवर में कुछ बंधन भी हुआ करते थे,
जिनकों तोड़ पाना संभव
नहीं था । जिसमें सासें तो
अपनी होती थी, पर उसकी मर्यादा रूपी लगाम समाज व परिवार के
हाथों में होती थी । लेकिन फिर भी उस दौर में बंदिश में रहते हुए किसी का दम नहीं
गुटता था, बल्कि लोग खुश रहते थे l तब सामाजिक परम्परा और संस्कृति के नाम पर समाज
में कई कुरीतियाँ भी सातवें आसमान पर थी l जिसका परिणाम यह हुआ कि वर्तमान समय में
सामाजिक आधारों में न रीति रही,
न ही नीति रही, सिर्फ और सिर्फ भावनाओं से खेलना इस दौर में आदत सी हो गयी है । परम्परा, संस्कृति
और संस्कार बेजान हो गए हैं, और हर इन्सान अपनी खुद की बस्ती में ही गुम हो गये
है, जैसे किनारों पर आकर लहरे गुम हो जाती हैं । आधुनिक दौर की इस भाग-दौड़ भरी
जिन्दगी में किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं हैं । बस भागते रहो, भागते रहो, यह दौड़ केवल श्मशान में जाकर ही खत्म होती हैं
।
सच है कि आज
संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं । एकल परिवार भी तनाव में जी रहे हैं । बदलते परिवेश
में पारिवारिक सौहार्द का ग्राफ नीचे गिर रहा है, जो एक गंभीर समस्या है ।
परिवार से पृथकता तक तो ठीक है,
किंतु उसके मूल आधार
स्नेह में भी खटास पड़ जाती है । स्नेह सूत्र से विच्छिन्न परिवार, फिर ‘घर’ के दिव्य भाव को नहीं जी पाता क्योंकि तब उसकी
दशा ‘परिवार के सदस्यों की परस्पर अजनबी समूह’ जैसी हो जाती है।
मित्रो आज हमें
अपने परिवारों में फिर से शुख शांति लानी है तो आज हमें अपने विवेक से अपने
अंतर्मन में झांक कर स्वयं को टटोलना होगा और वास्तविकता को समझ कर फिर से अपनी
जीवन शैली और विचारो को बदलना होगा । जिस प्रकार आयुर्वेद में निरोगी काया के लिए
वात, पित्त और कफ का संतुलन
अनिवार्य बताया गया है, उसी प्रकार
पारिवारिक सुख और शांति के लिए स्नेह, सम्मान और स्वतंत्रता का संतुलन जरूरी है । इतिहास गवाह है कि अनुशासित और मर्यादित जीवनशैली
को अपनाने से टूटते-बिखरते परिवारों में भी फिर से सुख शांति जैसा वातावरण बन जाता
है ।
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