Thursday, August 27, 2020

डॉ० पी.एन. रछौया द्वारा “रैगर शिक्षित समाज संस्था” पर लिखित लेख

 


दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया)

दुनिया भर में सदियों से मनुष्य ने अपने इतिहास और शोध पर लाखों की संख्या में किताबें लिखी और प्रकाशित कराई हैं । यह एक प्रथा है जो आज के आधुनिक युग में भी चल रही है । कई अनुभवी लेखकों ने विभिन्न विषयों पर विभिन्न भाषाओ में पुस्तकों को लिखा है । जिनमे काल्पनिक और गैर-काल्पनिक दोनों तरह की किताबें है l शोध और अनुसंधानकर्ताओं द्वारा जो पुस्तकें लिखी गई है, वे हमे अपने इतिहास की जड़ों के करीब ले जाने में सहायक होती हैं । जिनसे हमें पौराणिक सभ्यता व संस्कृति और जीवन शैली के इतिहास का पता लगाने में मदद मिलती हैं । कई प्रेरक और प्रेरणादायक किताबें लोगों को अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ करने के लिए प्रेरित करती है l

हम बात करते हैं डॉ० पी.एन. रछौया, IPS(सेवानिवृत) Ex Addl. Director of Police  जिन्होंने रैगर समाज पर शोध व अनुसन्धान कर रैगर जाति का इतिहास व संस्कृति, रैगर जाति की उत्पत्ति एवं सम्पूर्ण इतिहास, और रैगर जाति की संस्कृति, कला व रीति-रिवाज आदि तीन किताबे लिखी है चौथी अभी प्रकाशित नहीं हुई है l डॉ० पी.एन. रछौया द्वारा लिखित पुस्तक में “रैगर शिक्षित समाज संस्था” के बारे में बड़ी स्पष्टता के साथ लिखा है l मैं इसे समाज की एक अच्छाई के रूप में देखता हूँ क्योंकि हमको ऐसे लेखकों की भी आवश्यकता है जो समाज की सच्ची बातों को निर्भीकता के साथ साथ कठोर बातों को भी लिखें l डॉ० पी.एन. रछौया द्वारा पुस्तक में लिखित लेख प्रस्तुत है:-

मैंने वर्ष 1962 में दिल्ली हायर सैकेण्डरी बोर्ड से हायर सैकेण्डरी उत्तीर्ण की थी और उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के लिए प्रवेश लिया था। उस समय दिल्ली के रैगर समाज में शिक्षा का अत्यंत अभाव था। हम सब रैगर जाति के नवयुवकों ने समाज में शिक्षा के प्रचार के लिए सन् 1963 में रैगर शिक्षित समाज का गठन किया जिसमें उन्हीं नवयुवकों को सदस्य बनाया गया जो कम से कम दसवीं कक्षा उत्तीर्ण होतें थे। मैं उस समय रीजनल आयरन एण्ड स्टील कार्यालय ( Regional Iron and Steel Controller ) उद्योग भवन दिल्ली में लौअर डिविजन क्लर्क ( LDC ) के पद पर नौकरी करने लग गया था। मेरी तरफ ही अन्य रैगर नवयुवक सरकारी नौकरी में क्लर्क लग गये थे। रैगर जाति में शिक्षा के प्रचार के लिए हम नवयुवक विष्णु मंदिर में अपना समय निकाल कर स्कूल के बच्चों को पढ़ाते थे। यह संस्था इसलिए भी बनाई गई थी कि रैगर जाति में सामाजिक, शैक्षिणक और रैगर संस्कृति का उत्थान व विकास हो। इस संस्था के प्रबंध के लिए एक समिति भी बनाई गई थी। इस संस्था के पहले पदाधिकारी राजेन्द्र नाथ चांदोलिया (प्रधान), ओमप्रकाश डीगवाल (मंत्री), परमानंद लावड़िया (संयोजक, शोध प्रकोष्ठ), अशोक कुमार रातावाल (संयोजक, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ), पृथ्वी चंद पटेल (संयोजक, पुस्तकालय प्रकोष्ठ), तीर्थराज बड़ोलिया (संयोजक, शिक्षा प्रकोष्ठ) और साधुराम सेरसिया (कोषाध्यक्ष) बनाये गये थे। इस संस्था की प्रबंध समिति में 12 सदस्य रखें गये थे : किशनलाल आलोरिया, किशनलाल मोहनपुरिया, खुशहाल चंद सक्करवाल, गौतम चंद जाजोरिया, जसपत गिरधर, नंद किशोर सबलाणिया, पृथ्वी चंद आटोलिया, मोहनलाल धूड़िया, मोहनलाल मोहनपुरिया, रूपराम मौर्य और लखपत राय अटल।

रैगर शिक्षित समाज के उद्देश्य और कार्य :-

(१) रैगर जाति के मूल उद्गम और विकास के आंकड़े एकत्रित करना और जाति की विशेषताओं एवम् वंशावलियों के सम्बन्ध में शोध करना।

(२) रैगर समाज में एकता स्थापित करते हुए उच्च शिक्षा की ओर रैगर समाज को प्रेरित करना।

(३) रैगर नवयुवकों को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास की तरह प्रेरित करना।

(४) रैगर नवयुवकों में राष्ट्र भावना को उत्पन्न कर देश सेवा की ओर उन्हें प्रेरित करना।

(५) रैगर जाति में सांस्कृतिक विकास करना।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि रैगर जाति की जनगणना के लिए मैं और अशोक कुमार रातावाल गर्मी की कड़ी धूप में एक साईकिल पर बैठकर दिल्ली के दूर दराज़ के इलाकों में गयें थे और भूख प्यास की परवाह नहीं कर रैगर जाति की शैक्षणिक और जनसंख्या के आंकड़े एकत्रित किये थे। जहाँ उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धन की आवश्यकता का प्रश्न है, रैगर समाज के धनी व्यक्तियों, सरकारी नौकरी करने वाले रैगर जाति के लोग, रैगर समाज के छोटे-मोटे व्यापारियों और लोकसभा के सदस्य आदि ने धन उपलब्ध करवाया था। इस प्रकार सभी स्त्रोतों से 1969-1970, 1970-71 और 1971-1972 तक कुल चौदह हजार पांच सौ चौरानिवे और इक्कीस पैसे (14500.21   ) प्राप्त हुए थे। वर्ष 1969 से 1972 तक कुल 250 बालिकाओं और बालकों को इसका लाभ प्राप्त हुआ था।

रैगर शिक्षित समाज का मूल उद्देश्य शिक्षा और खेलकूद का प्रचार व प्रसार करना था इसके लिए स्कूल, होस्टल, प्रतियोगिता वाले कोंचिग सेंटर, शाम की कक्षा, वाचनालय, वाद-विवाद प्रतियोगिता, प्रौढ़ शिक्षा, संगोष्ठी, बच्चों को मुफ्त पुस्तकें व अन्य शिक्षा के सामान आदि कार्यक्रम किये जाते थे। जहाँ किसी रैगर बच्चे को स्कूल अथवा कालेज में प्रवेश नहीं मिलता था अथवा कोई दिक्कत होती थी वहाँ रैगर शिक्षित समाज के लोग उसे स्कूल अथवा कालेज में प्रवेश कराने में पूरी मदद किया करते थे। रैगर समाज में पढ़ने की प्रवृत्ति का विकास करने के लिए विष्णु मंदिर में एक वाचनालय भी खोला गया था। इसमें खूब राम जाजोरिया ने अपनी 'आस्था लाईब्रेरी' की पुस्तकें प्रदान की थी। लक्ष्मी नारायण दोतानिया ने रांगेय राघव के उपन्यास और सरिता नामक माहवारी पत्रिका दी थी। 1963 के बाद रैगर शिक्षित समाज ने देवनगर व बापानगर में अपनी शाखाएँ खोलीं थीं। सन् 1970 में एक दूसरा वाचनालय मादीपुर में खोला था। इस वाचनालय का औपचारिक उद्घाटन 8 मार्च 1970 को तात्कालिक दिल्ली नगर निगम के सदस्य शिवनारायण सरसूनिया व्दारा किया गया था।

सन् 1963 से रैगर शिक्षित समाज की गतिविधियों में काफी वृद्धि हो चुकी थी। सामाजिक विषयों पर रैगर समाज के सामाजिक व राजनैतिक नेताओं को संगोष्ठियों में आमंत्रित किया जाने लगा था। जुलाई 1969 में विष्णु मंदिर में एक संगोष्ठी रखीं गईं जिसमें अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में दिल्ली नगर निगम के सदस्य शिवनारायण सरसूनिया ने निम्न कहीं जाने वाली जातियों के उत्थान में बाबासाहेब आंबेडकर के योगदान को सराहा था। इसी प्रकार फरवरी, 1970 समाज सदन सरस्वती मंदिर रैगरपुरा में पूरण चंद पिंगोलियां की अध्यक्षता में हरिजन जातियों के सामाजिक एवम् आर्थिक विकास में राजनीति का योगदान विषय पर एक संगोष्ठी रखीं गईं जिसमें मुख्य वक्ताओं में नवल प्रभाकर, शिवनारायण सरसूनिया आदि थे। इसी प्रकार दिसम्बर 1970 में समाज सदन सरस्वती मंदिर में आयोजित संगोष्ठी में दिल्ली के विभिन्न भागों के रैगर समाज के काफी व्यक्तियों ने भाग लिया। इस संगोष्ठी का विषय था "सामाजिक समरसता में राजनैतिक व्देषता क्यों? सभी वक्ताओं ने अपने उद्बोधन में रैगर समाज में राजनीति के कारण दुर्भावना, घृणा, व्देषता और सामाजिक व्दन्द के आने की चिंता जताई जिसके कारण उच्च जातियाँ रैगर समाज का खुलेआम शोषण करने लग गयीं हैं। अतः अपने सुझावों में सबने राजनीति के कारण समाज के पतन को नहीं होने देने की अपील की थी। इस संगोष्ठी में मुख्य वक्ता चौधरी ग्यारसा राम चांदोलिया, प्रभुदयाल रातावाल, कंवर सेन मौर्य, गंगा प्रसाद घूड़िया, लक्ष्मण प्रभाकर, बंसीलाल खोरवाल और परमानन्द लावड़िया थे।

सन् 1970 में रैगर शिक्षित समाज ने "बालवाड़ी" खोले जहाँ रैगर महिलाएँ अपने बच्चों को देखभाल व प्राथमिक शिक्षा के लिए छोड़ सकतीं थीं। 7 जून 1965 में एक रोजगार सेंटर भी खोला गया था जहाँ सरकारी रोजगार और सरकार की उच्च शिक्षा प्राप्ति की योजनाओं की सारी सूचनायें उपलब्ध कराई जाती थी। रैगर शिक्षित समाज महिलाओं की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए भी वचनबद्ध थीं इसलिए रैगर महिलाओं के लिए अप्रैल 1970 में एक सिलाई कटाई केन्द्र भी खोला गया। रैगर शिक्षित समाज ने परिवार नियोजन के अनेक कार्यक्रम भी आयोजित किये थे। फरवरी 1969 और मार्च 1970 में विष्णु मंदिर में एक नाटक का भी आयोजन किया गया था जिसका नाम मकड़ी का जाल था। 1972 में रेडियो प्रसारण के माध्यम से रैगर समाज में परिवार नियोजन करने की आवश्यकता पर बल दिया गया था। इसी संदर्भ में 19 अक्टूबर 1972 को राजेंद्र चांदोलिया, जगदीश कुमार मोहनपुरिया और मामचंद तोणगरिया ने All Indian Radio, Delhi से एक संवाद के मार्फत परिवार नियोजन के बारे में प्रसारण किया था। 14 मार्च 1970 को रैगर शिक्षित समाज ने विष्णु मंदिर दिल्ली में डाक्टरों को बुलाकर परिवार नियोजन पर उद्बोधन करवाया था।

रैगर शिक्षित समाज व्दारा अपने लिए अलग से भवन की आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा था अतः इसके लिए सरस्वती मंदिर गली नम्बर 47, रैगरपुरा में भवन निर्माण का कार्य का प्रारंभ किया गया। यह मौजूद अग्रवाल धर्मशाला के सामने ही स्थित हैं। इसका भूमि पूजन प्रसिद्ध समाज सेवी कंवर सैन मौर्य के कर कमलों से किया गया था। इस भवन निर्माण के लिए समाज के विभिन्न दानदाताओं से कुल 8249.00 रूपये प्राप्त हुए थे। ( रैगर शिक्षित समाज की स्मारिका (1973) के अनुसार)। इस सरस्वती मंदिर के निर्माण के लिए कुल 13910.14 रूपये खर्च हुए थे। श्रीमती मोता देवी कुरडिया धर्मपत्नी स्व. लक्ष्मण राम कुरडिया ने उनकी याद में सबसे अधिक दान दिया था जो 7151 रूपये था। इस सरस्वती मंदिर में माता सरस्वती की मूर्ति का अनावरण भी श्रीमती मोता देवी कुर्डिया के कर कमलों से ही किया गया था। सरस्वती मंदिर का निर्माण करवाने वाले काफी लोग अच्छे पदों पर दिल्ली के बाहर चले गए तथा कईं अपने घरों को बेचकर रैगरपुरा करोलबाग को छोड़कर अन्यत्र बस गयें। अपने ने ही इस भवन पर अपने ताले लगा दिये। अन्त में यह भवन गली नम्बर 47 के कब्जे में आ गया जहाँ समाज के उत्थान की कार्यवाहियां होना बंद ही हो गयी हैं।

सन् 1970 में संस्कृति व ऐतिहासिक स्थानों व विविधता में एकता को बताने के आधार पर रैगर शिक्षित समाज ने शैक्षणिक व सांस्कृतिक भ्रमणों का आयोजन भी किया जिसमें रैगर समाज के पुरुष, महिलायें तथा बच्चे सम्मलित होतें थे। यह भ्रमण नैनीताल का किया गया जहाँ हिमाचल पर्वत श्रृंखला का ज्ञान हो सका। रैगर जाति का निकास मूलतः राजस्थान से हुआ था अतः राजस्थान में जयपुर, अजमेर, पुष्कर, ब्यावर, उदयपुर और चित्तोड़गढ़ का भी भ्रमण किया गया जहाँ अपनी जाति के सामाजिक व राजनैतिक नेताओं से भी सम्पर्क किया गया। एक भ्रमण चंडीगढ़ का भी किया गया जिसमें मैं स्वयं भी मौजूद था। इन भ्रमणों से रैगर जाति के नवयुवकों और उनके परिवारों में एकता और सुख दुःख बाटने की परम्परा का जन्म हुआ था। रैगर शिक्षित समाज ने सभी दलितों और अनुसूचित जातियों में एकता व समानता की भावना के लिए 2 अक्टूबर 1970 को एक सहभोज का भी आयोजन किया जिसमें रैगर जाति के साथ बाल्मीकि जाति को भी निमंत्रण दिया गया जो उन्होंने सहर्ष स्वीकार करते हुए सहभोज में रैगर जाति के साथ खाना खाया। इस सहभोज में रैगर जाति के साथ साथ जाटव, बाल्मीकि व अन्य अछूत जातियों के करीबन 200 लोगों ने एक साथ खाना खाया। रैगर शिक्षित समाज के सभी सदस्य यह मानते थे कि सभी अनुसूचित जातियों में एकता कायम हो और सभी अपने अधिकारों की लड़ाई लड़कर विकास के रास्ते पर आगे बढते रहे। इसी प्रकार ऐसा ही सहभोज दुबारा 2 अक्टूबर 1971 को रखा गया जिसमें 300 से अधिक लोगों ने विभिन्न दलित समाज से हिस्सा लिया और इस सहभोज की काफी प्रशंसा की गयी थी। इसका विस्तृत विवरण रैगर शिक्षित समाज की स्मारिका ( 1973 ) में दिया हुआ है।

वास्तव में बाल्मीकि समाज के साथ सहभोज के आयोजन से एक ऐसी क्रांति की शुरुआत हुई जिसमें रैगर समाज ने अपनी अग्रणी भूमिका निभाकर पूरे देश के सामने बाबासाहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर के सभी जातियों में एक समानता के विचार को स्वीकार किया था। इन सहभोज के आयोजनों को रैगर समाज के तत्कालीन नेताओं जैसे डॉ खूबराम जाजोरिया, नवल प्रभाकर, देवेन्द्र खटनावलिया, गोतम सिंह सक्करवाल आदि ने बहुत सराया था। इन आयोजनों का यह प्रभाव रहा कि रैगर जाति का सम्मान अन्य जातियों की निगाहों में काफी बढ़ गया और इस जाति को स्वयं शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़कर एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया। इसका प्रभाव यह भी पड़ा कि रैगर समाज में विभिन्न संस्थाओं, समितियों व संघों का जन्म होना प्रारम्भ हो गया। हालांकि 1964 से पूर्व रैगर समाज में कुछ प्रमुख संस्थाओं का जन्म हो चुका था जिसमें प्रमुख थी - रैगर संयुक्त अग्रजनी संघ, दिल्ली प्रान्तीय रैगर शुभचिंतक परिषद्, दिल्ली प्रांतीय रैगर युवक संघ, श्री लाभुनाथ सत्संग सभा, रैगर नवयुवक संघ, ज्ञान लक्ष्य निवृत्ति विद्यापीठ आदि।

रैगर शिक्षित समाज बाद के वर्षों में अप्रभावी होकर समाप्ति की ओर बढ़ गई क्योंकि इसके प्रायः सभी कार्यकर्ता रैगरपुरा और करोलबाग से बाहर बस गयें तथा सरकारी नौकरी में उच्च पदों पर दिल्ली से बाहर चले गये। इसके अलावा इस संस्था का नेतृत्व उन लोगों के हाथ में आ गया जो रैगर समाज की उन्नति के बदले अपने नीजी स्वार्थों की राजनीति में फंस हुए थे। अब रैगर शिक्षित समाज केवल रैगर इतिहास के पन्नों में दबकर रह गया है जिसका नाम व कार्य आगे आने वाली रैगर पीढ़ी नहीं जान पायेगी।

नोट : एडवोकेट कमल भट्ट, प्रचारक, रैगर साहित्य शोध एवम् प्रचार संस्थान द्वारा प्रेषित है l

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