'जोधपुरियो' हूँ सा!
सर्दियों की एक अलसाई सी सुबह। भले ही अभी तक सूरज ने दर्शन ना दिए हों। भले ही ठंड आपकी हड्डियों तक घुसपैठ कर हंगामा मचा रही हो। भले ही सड़क किनारे अलाव के आसपास खड़े ऑटो ड्राइवर्स, आग के बेअसर होने के लिए हवा के रुख को दोषी ठहरा रहे हों, लेकिन जोधपुर रेल्वे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 से सुबह 5:50 बजे रेंगती हुई निकलने वाली रणथम्भोर एक्सप्रेस में जोधपुर के बाशिंदों की गर्मजोशी सुकून पैदा कर चुकी है।
रेलगाड़ी ने अभी रफ्तार नहीं पकड़ी है। लेकिन खालिस जोधपुरियों की तरफ से, सिग्नेचर स्टाइल में, एक के बाद एक, इतने 'परचे' दिए जा रहे हैं कि आपको ठंडक महसूस करने का समय ही नहीं मिल रहा।
"हाँ! डब्बा (कोच) में आ ग्यो हूँ... 'हीट' (याने कि 'सीट') मिल गी है... पोचिया ने म्हारे साथे कई लेवणे भेजियो... थे इत्ता लोग फालतू ई आया... हिरोवण (early morning food/not breakfast) कर ने रवाना हुया हा, पण पूड़ियाँ ने आलू रो फरको हाग (बिना ग्रेवी वाली सब्जी) पैक करवा लियो है, अबार खोल लेवां..." जैसे वाक्य सुन कर मैं सहज ही अपने दिमाग में वो स्पॉट्स बना लेता हूँ जिन सीट्स पर कोई जोधपुरी भाई या बहन सफर में साथ रहने को है।
"गाड़ी टाइम माथे रवाना हो रई है...हाल राई का बाग आयो है। बनाड़ ई कोनी पुगिया। कोई चेन खींच दी दीखे..." जैसे वाक्यों के साथ किसी फोन पर रनिंग कमेंट्री चल रही होती है, तो दूसरी तरफ एक बुजुर्गवार... एक के बाद एक, अपने गंतव्य (location of arrival) और पीछे छूट रहे जोधपुर में बैठे खास लोगों को सुबह-सुबह का अपडेट बड़े प्यार से दे रहे हैं। ये अपडेट अलग-अलग लोगों को रिपीट मोड़ पर इतनी बार दे रहे थे कि, मेड़ता पहुँचने तक उनकी आपबीती मुझे भी याद हो गई।
उनके ही शब्दों में: "अरे आज तो मा'देव (महादेव) लाज राखी। हवा चार (4:15) रो अलॉर्म सेट करियो, घंटी बाजी तो एक बार नीन्द भी खुल गी। पण मोबाइल रे आँगळी कर ने आपां (यानी वे खुद। खुद को out of respect plural यानी 'आपां' कहा जा सकता है) पाछा पौड़ ग्या। भोडो... एडो आळस आयो कि हवा पाँच (5:15) इज नींद खुली। थारी काकी (यानी इनकी wife) तो मिन्दर गई परी ही, तो उठावे कुण! हिनान हमपाडा (shower) किया... भागतो दौडतो तैयार हुयो। पिण्टिया ने हेलो (आवाज़) पाड़ ने केयो कि भई अबे तो तू ई दूध चढ़ा ने, हांदीणा (winter special sweets) रो लाडू दे ने... फटाफट गाड़ी निकाळ। पिंटियो लाई (poor chap) फुल स्पीड में एन टाइम माथे टेसण पुगा दियो। घुसता ही जिको डिब्बो हामने (सामने) दिखियो, उणमे चढ़ा दियो। हालाँकि हामान (सामान) बत्तो राखूं कोनी, इण वास्ते घणी तकलीफ कोनी हुई। पण, ऐणुती (unnecessarily) भाग दौड़ होयगी।"
हर बार, सामने वाला भी फोन पर इस स्टोरी को सुनते हुए सवाल पूछ-पूछ कर ये सबूत दे रहा होता कि उसको इस आपबीती में पूरा इंटरेस्ट आ रहा है। एक सज्जन ने तो इंस्टेंट कैलकुलेशन करते हुए इनको बता भी दिया कि आज सुबह-सुबह चंचल का चौघड़िया था, ये सब भाग-दौड़ तो ज्योतिष ने पहले से तय कर रखी थी।
जोधपुर से जयपुर तक के पाँच घंटे के सफर में आयोजित होने वाले आधा दर्जन 'मिनी फ़ूड फेस्टिवल' के दौरान खुद और सहयात्रियों के खाने पीने का क्या-क्या सामान साथ लिया गया है, ये भी हर बार दोहराया जाता: "घणो कोनी लियो रे! थारी काकी मठरियां घाल दी। काले पिंटियो चतरिये रा गुलाबजामन ला ने धरिया हा, थोड़ा वे ले लिया, पूड़ियाँ रे साथे पचकुटो है। यूँ मेड़ता माथे पकौड़ा ले लेवां, पण घर रो माल... घर रो इज होवे। दाल रो हीरो (हलवा) ठंडो भावे कोनी, पण टिपण (टिफिन) में वो भी है। खोखा (बेसन की मोटी सेव) कुतरता... गोटण तो पूग इज ग्या..."
जोधपुर वालों का राजनीति ज्ञान भी पूरे आत्मविश्वास के साथ बाहर आता है। एक भाई साब के पास बैठे किसी यात्री ने व्हाट्सएप्प पर आया कोई वीडियो प्ले किया तो वो एक्सपर्ट कमेंट के साथ तत्पर थे: "हेंग (सब) एक जेड़ा है सा। दिल्ली रा विधानसभा चुनाव गया पछे हेंग मिन्नी (भीगी बिल्ली) ज्यूँ चुप बैठ जावेला। गेली (पागल) जनता याणे लारे भेजोमारी करती रेवे। ... दाढ़ी वाळा दोई (मोदी और शाह) मज़ा ले रया है। थोड़ा दिन और रुक जाओ, तमासा ई तमासा होवण वाळा है।" और साथ बैठे लोग उनके समर्थन में मुंडी हिलाने लगते।
दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों के निवासी, सर्द मौसम के बीच... सूरज की नगरी से आ रही इस गर्मजोशी के अभयस्त (habitual) नहीं होते हैं। उनकी कसमसाहट उनके चेहरे पर नज़र आ जाती जब खाने के बीच डकार के साथ 'जै शंकर' का उद्घोष कोच में गूंज रहा होता।
जोधपुरी परिवार का नाश्ते का डब्बा खुलता तो आसपास वालों की जम कर मनुहार की जाती। एक बार, दो बार और बार-बार... खाने की मनुहार इतनी बार, कि सहयात्री को शक़ होने लगता है कि भाई... खाने में कुछ मिला हुआ तो नहीं है! नहीं भाई, ये सब खालिस जोधपुरी हैं और इनकी मनुहार में सिर्फ प्यार मिला हुआ है।
मनुहार करने का अंदाज़ भी अनूठा: "थोड़ा तो ट्राई करो। अरे, ये फेमस है हमारे यहां की! अरे ये आपकी काकी... (हाँ, आपसे उनका ये इंस्टेंट रिश्ता भी उन्हीं का तय किया हुआ है) ने सुबह-सुबह पूड़ियाँ बनाई हैं, थोड़ी टेस्ट करो... अरे, ये तो कम घी की है, पेट के किसी कोने में पड़ी रहेगी..." और आगे-पीछे की सीट्स पर बैठे यात्री इस मीठी मनुहार से 'ब्रांड जोधपुरिया' का आनंद उठाते रहते।
जीव विज्ञान की पढ़ाई में पेट का आकार चाहे जैसा हो। जोधपुर के लोगों के पेट में कई कोनें होते हैं। जीभ की स्वदानुभूति को ध्यान में रखते हुए एक न एक कोने को खाली रखा ही जाता है।
और हाँ... जोधपुरियों के दिल में भी अनगिनत कोनें मौजूद होते हैं।
कैसे!
फिर कभी बताएँगे 😊
सादर
व्हाट्सएप ग्रुप से प्राप्त लेख
सर्दियों की एक अलसाई सी सुबह। भले ही अभी तक सूरज ने दर्शन ना दिए हों। भले ही ठंड आपकी हड्डियों तक घुसपैठ कर हंगामा मचा रही हो। भले ही सड़क किनारे अलाव के आसपास खड़े ऑटो ड्राइवर्स, आग के बेअसर होने के लिए हवा के रुख को दोषी ठहरा रहे हों, लेकिन जोधपुर रेल्वे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 से सुबह 5:50 बजे रेंगती हुई निकलने वाली रणथम्भोर एक्सप्रेस में जोधपुर के बाशिंदों की गर्मजोशी सुकून पैदा कर चुकी है।
रेलगाड़ी ने अभी रफ्तार नहीं पकड़ी है। लेकिन खालिस जोधपुरियों की तरफ से, सिग्नेचर स्टाइल में, एक के बाद एक, इतने 'परचे' दिए जा रहे हैं कि आपको ठंडक महसूस करने का समय ही नहीं मिल रहा।
"हाँ! डब्बा (कोच) में आ ग्यो हूँ... 'हीट' (याने कि 'सीट') मिल गी है... पोचिया ने म्हारे साथे कई लेवणे भेजियो... थे इत्ता लोग फालतू ई आया... हिरोवण (early morning food/not breakfast) कर ने रवाना हुया हा, पण पूड़ियाँ ने आलू रो फरको हाग (बिना ग्रेवी वाली सब्जी) पैक करवा लियो है, अबार खोल लेवां..." जैसे वाक्य सुन कर मैं सहज ही अपने दिमाग में वो स्पॉट्स बना लेता हूँ जिन सीट्स पर कोई जोधपुरी भाई या बहन सफर में साथ रहने को है।
"गाड़ी टाइम माथे रवाना हो रई है...हाल राई का बाग आयो है। बनाड़ ई कोनी पुगिया। कोई चेन खींच दी दीखे..." जैसे वाक्यों के साथ किसी फोन पर रनिंग कमेंट्री चल रही होती है, तो दूसरी तरफ एक बुजुर्गवार... एक के बाद एक, अपने गंतव्य (location of arrival) और पीछे छूट रहे जोधपुर में बैठे खास लोगों को सुबह-सुबह का अपडेट बड़े प्यार से दे रहे हैं। ये अपडेट अलग-अलग लोगों को रिपीट मोड़ पर इतनी बार दे रहे थे कि, मेड़ता पहुँचने तक उनकी आपबीती मुझे भी याद हो गई।
उनके ही शब्दों में: "अरे आज तो मा'देव (महादेव) लाज राखी। हवा चार (4:15) रो अलॉर्म सेट करियो, घंटी बाजी तो एक बार नीन्द भी खुल गी। पण मोबाइल रे आँगळी कर ने आपां (यानी वे खुद। खुद को out of respect plural यानी 'आपां' कहा जा सकता है) पाछा पौड़ ग्या। भोडो... एडो आळस आयो कि हवा पाँच (5:15) इज नींद खुली। थारी काकी (यानी इनकी wife) तो मिन्दर गई परी ही, तो उठावे कुण! हिनान हमपाडा (shower) किया... भागतो दौडतो तैयार हुयो। पिण्टिया ने हेलो (आवाज़) पाड़ ने केयो कि भई अबे तो तू ई दूध चढ़ा ने, हांदीणा (winter special sweets) रो लाडू दे ने... फटाफट गाड़ी निकाळ। पिंटियो लाई (poor chap) फुल स्पीड में एन टाइम माथे टेसण पुगा दियो। घुसता ही जिको डिब्बो हामने (सामने) दिखियो, उणमे चढ़ा दियो। हालाँकि हामान (सामान) बत्तो राखूं कोनी, इण वास्ते घणी तकलीफ कोनी हुई। पण, ऐणुती (unnecessarily) भाग दौड़ होयगी।"
हर बार, सामने वाला भी फोन पर इस स्टोरी को सुनते हुए सवाल पूछ-पूछ कर ये सबूत दे रहा होता कि उसको इस आपबीती में पूरा इंटरेस्ट आ रहा है। एक सज्जन ने तो इंस्टेंट कैलकुलेशन करते हुए इनको बता भी दिया कि आज सुबह-सुबह चंचल का चौघड़िया था, ये सब भाग-दौड़ तो ज्योतिष ने पहले से तय कर रखी थी।
जोधपुर से जयपुर तक के पाँच घंटे के सफर में आयोजित होने वाले आधा दर्जन 'मिनी फ़ूड फेस्टिवल' के दौरान खुद और सहयात्रियों के खाने पीने का क्या-क्या सामान साथ लिया गया है, ये भी हर बार दोहराया जाता: "घणो कोनी लियो रे! थारी काकी मठरियां घाल दी। काले पिंटियो चतरिये रा गुलाबजामन ला ने धरिया हा, थोड़ा वे ले लिया, पूड़ियाँ रे साथे पचकुटो है। यूँ मेड़ता माथे पकौड़ा ले लेवां, पण घर रो माल... घर रो इज होवे। दाल रो हीरो (हलवा) ठंडो भावे कोनी, पण टिपण (टिफिन) में वो भी है। खोखा (बेसन की मोटी सेव) कुतरता... गोटण तो पूग इज ग्या..."
जोधपुर वालों का राजनीति ज्ञान भी पूरे आत्मविश्वास के साथ बाहर आता है। एक भाई साब के पास बैठे किसी यात्री ने व्हाट्सएप्प पर आया कोई वीडियो प्ले किया तो वो एक्सपर्ट कमेंट के साथ तत्पर थे: "हेंग (सब) एक जेड़ा है सा। दिल्ली रा विधानसभा चुनाव गया पछे हेंग मिन्नी (भीगी बिल्ली) ज्यूँ चुप बैठ जावेला। गेली (पागल) जनता याणे लारे भेजोमारी करती रेवे। ... दाढ़ी वाळा दोई (मोदी और शाह) मज़ा ले रया है। थोड़ा दिन और रुक जाओ, तमासा ई तमासा होवण वाळा है।" और साथ बैठे लोग उनके समर्थन में मुंडी हिलाने लगते।
दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों के निवासी, सर्द मौसम के बीच... सूरज की नगरी से आ रही इस गर्मजोशी के अभयस्त (habitual) नहीं होते हैं। उनकी कसमसाहट उनके चेहरे पर नज़र आ जाती जब खाने के बीच डकार के साथ 'जै शंकर' का उद्घोष कोच में गूंज रहा होता।
जोधपुरी परिवार का नाश्ते का डब्बा खुलता तो आसपास वालों की जम कर मनुहार की जाती। एक बार, दो बार और बार-बार... खाने की मनुहार इतनी बार, कि सहयात्री को शक़ होने लगता है कि भाई... खाने में कुछ मिला हुआ तो नहीं है! नहीं भाई, ये सब खालिस जोधपुरी हैं और इनकी मनुहार में सिर्फ प्यार मिला हुआ है।
मनुहार करने का अंदाज़ भी अनूठा: "थोड़ा तो ट्राई करो। अरे, ये फेमस है हमारे यहां की! अरे ये आपकी काकी... (हाँ, आपसे उनका ये इंस्टेंट रिश्ता भी उन्हीं का तय किया हुआ है) ने सुबह-सुबह पूड़ियाँ बनाई हैं, थोड़ी टेस्ट करो... अरे, ये तो कम घी की है, पेट के किसी कोने में पड़ी रहेगी..." और आगे-पीछे की सीट्स पर बैठे यात्री इस मीठी मनुहार से 'ब्रांड जोधपुरिया' का आनंद उठाते रहते।
जीव विज्ञान की पढ़ाई में पेट का आकार चाहे जैसा हो। जोधपुर के लोगों के पेट में कई कोनें होते हैं। जीभ की स्वदानुभूति को ध्यान में रखते हुए एक न एक कोने को खाली रखा ही जाता है।
और हाँ... जोधपुरियों के दिल में भी अनगिनत कोनें मौजूद होते हैं।
कैसे!
फिर कभी बताएँगे 😊
सादर
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