Thursday, August 6, 2020

अगर न्याय न हुआ हो तो

आज के इस दोफाँक वक़्त में जब आप या तो इधर हैं, या उधर, जब आपकी स्वतंत्र भावनाओं का कोई मोल नहीं बचा, तब भी कुछ बातें कह देनी चाहिये, ट्रोल होने का खतरा उठाकर भी। ताकि आने वाले वक़्त में जब धुंधलका हटे और चीजें साफ नजर आने लगे तो आप अन्याय, अनीति और बेमानी के पक्ष के खड़े न नजर आयें।

सवाल वही है। आज के ए’नकाऊंटर का। जिन चार लोगों का ए’नकाऊंटर हुआ है उनको लेकर मन में कल तक कोई सहानुभूति नहीं थी। मेरी नजर में वे ऐसे दरिंदे थे, जिन्होने मनुष्य होने के अर्थ को खो दिया था। एक जीवित इन्सान की निष्पाप आत्मा को कुचलना, उसकी मर्जी के बगैर उसके शरीर को रौंदना, उसके मन में बसे प्रेम और यौन भावनाओं पर अनैतिक तरीके से कब्जा करने, उसे हासिल करने की कोशिश करना और यह सोचे बगैर यह भी एक इंसानी जीवन है उसे आग के लपटों में झुलसा देना। यह सब सोच कर दिमाग हिल जाता है। क्योंकि मैं उस मनस्थिती में आजकल जी रहा हूं कि अगर किसी से बेवजह बहस भी हो जाये और उसमें अपनी गलती हो तो, घंटों पश्चाताप से भरा रहता हूं। ऐसे में यह सोचना असह्य है कि कोई किसी के साथ ऐसा कैसे कर सकता है।

अगर उस रोज या तो उस महिला ने, या पुलिस वालों ने या आसपास के लोगों ने बचाव में उसकी हत्या कर दी होती तो शायद ही कोई अफसोस होता। मगर आज वह बात नहीं है। जाने वाली जा चुकी है, पुलिस ने सन्दिग्धों के रूप में उनका नाम दर्ज किया था, बहुत मुमकिन है कि ये चारों लोग असली आरोपी रहे होंगे। मगर क्या ऐसा भी हो सकता है कि इनमें से कोई एक या दो आरोपी न हो। किसी संदेह में उसका नाम आ गया हो। मगर पुलिस ने देश के गुस्से को शांत करने के लिए चारो को मौत के घाट उतार दिया।

मेरा सवाल यह है कि क्या इस ए’नकाऊंटर से उसी दुखी स्वर्गवासी महिला को न्याय मिल गया? यह देश के सम्वेदनशील आवाम को जो इस घटना के बाद से ही सदमे और हताशा में डूबा है। सवाल यह भी है कि क्या यह न्याय है या प्रतिशोध? और यह बहुत बारीक सवाल है।

यह सच है कि इस देश में हर साल 40 हजार से अधिक रे’प होते हैं और इनमें सजा दिलाने की दर बहुत कम है। ऐसे में लोगों का न्याय व्यवस्था से भरोसा उठना स्वाभाविक है। वैसे भी न्याय व्यवस्था की जो सुस्त रफ्तारी है, उसमें बहुत कम मौकों पर न्याय होता नजर आता है। देश की सुस्त और लचर न्याय व्यवस्था से उकताये लोगों को तेलंगाना पुलिस का यह सड़क पर फैसला किया जाना अच्छा लगा होगा।

इससे पहले भी कई पुलिस अधिकारी अपराधियों का सीधे ए’नकाऊंटर करके जनता का हीरो बने हुए हैं। अब तक 56 नाम की फिल्म इसी थीम पर बनी थी। मगर हमने बाद में देखा कि मुंबई में कई ए’नकाऊंटर स्पेशलिस्ट बाद में कॉन्टैक्ट किलर बन बैठे और पैसे लेकर मर्डर करने लगे। अभी हाल ही में हमने यह खबर देखी कि छत्तीसगढ़ में कुछ निर्दोष आदिवासियों को नक्सली बता कर मार दिया गया था। अगर पुलिस अपनी सर्विस रिवोल्वर से सड़क पर न्याय करने लगे तो अन्याय होने के खतरे में भी उतनी ही बढोतरी हो जाती है।

मगर मूल सवाल है कि क्या यह न्याय है या प्रतिशोध। और क्या प्रतिशोध का पूरा होना न्याय का पूरा होना है? अगर किसी ने मेरे साथ कुछ गलत किया और मैं भी उसके साथ कुछ गलत कर दूं, तो क्या हिसाब बराबर हो जाता है? इसके बनिस्पत वह अगर खुद सामने से आकर गलती मान ले या मेरे आसपास का समाज उसे कहे कि इस मामले में तुमने गलती की है, भले उसे कोई सजा न मिले। न्याय कौन सा है?

इसी फेसबुक पर हम एक दूसरे को गलत साबित करने के लिए लगातार झगड़ते रहते हैं। किसी गाली देने वाले को गाली देकर हमारा मन नहीं भरता, हम चाहते हैं कि फेसबुक के समाज के सामने उसकी गलती साबित हो। तो किसी कसूरवार, किसी रे’पिस्ट की हत्या करके किसी को न्याय कैसे मिल सकता है, जब तक तथ्यों और तर्कों से यह साबित न हो जाये और न्यायपालिका यह फैसला न सुना दे कि फलां कसूरवार है। इसे इस तरह की सजा मिलनी चाहिये।

गांधी की निगाह में एक दोषी का मन से अपने अपराध को स्वीकार करना, पश्चाताप करना और खुद को बदलने की कोशिश करना ही न्याय है। अगर वास्तव में ऐसा हो तो निश्चित तौर पर पीड़ित को भी शांति मिलती होगी। मगर हमारी आधुनिक न्याय व्यवस्था में इन चीजों के लिए जगह कहां। इसलिये वह कानून की धाराओं और अदालती जिरह को मानती है। वह आरोपी को अपनी बात रखने का एक मौका जरूर देती है। क्योंकि हो सकता है किसी विपरीत परिस्थिति में उसने अपराध किया हो, उसे फंसाया जा रहा हो। मगर आरोपी की बात सामने आये बगैर जब उसे ठिकाने लगा दिया जाता है तो कई सवाल उसके साथ दफ़न हो जाते हैं।

इस देश में जब नाथूराम ने गांधी की हत्या की थी, तब भी वहां मौजूद लोगों ने उसकी लिन्चिंग नहीं की। उसे अदालत में अपनी बात रखने की पूरी आज़ादी दी गयी और आज भी उसकी राय पर आधारित किताब पूरे देश में बिकती है। किसी सरकार ने उसे बिकने से नहीं रोका। ऐसे देश में किसी आरोपी को सुने बगैर उसकी हत्या कर देने को कैसे सही माना जा सकता है।

मगर फिर क्या करें, देश की लचर न्यायपालिका के तारीखोंं के भरोसे उसे छोड़ दें। नहीं। मत छोड़िये। न्याय व्यवस्था अपना काम नहीं कर पा रही तो इसका मतलब यह नहीं कि न्याय का सिद्धांत ही गलत है। व्यवस्था की कमियों को ठीक करना हम सबकी जिम्मेदारी है। अगर हम वाकई न्याय चाहते हैं तो वह अदालती कटघड़े में ही होगा। सड़कों पर नहीं। सड़कों पर सिर्फ प्रतिशोध लिया जा सकता है।

और यह भी ध्यान में रखिये कि अपराध के मामलों में न्याय में देरी या न होने के पीछे उस पुलिस व्यवस्था की लचर जांच रिपोर्ट भी बड़ी वजह है, जिसके ए’नकाऊंटर को हम सिंम्बा फिल्म की तरह सेलीब्रेट कर रहे हैं। और पुलिस जांच रिपोर्ट में दो बेगुनाह का नाम डाल देना इस देश में आम बात है।

-PUSHYA MITRA

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