देश में इन दिनों
यौन हिंसा और अपराध को लेकर काफी गहमागहमी का माहौल है। सोचने की बात है कि आज
हमारा समाज ऐसा क्यों बन गया है कि ऐसे जघन्य अपराध होते चले जा रहे हैं और न्याय
पाने की लड़ाई इतनी लंबी खिंचती चली जा रही है। एक इंसान की जिंदगी से भी
लंबी एक मुकदमे की जिंदगी होती है। एक सक्षम,
पारदर्शी, सुलभ तथा कम खर्चीली न्याय प्रणाली सुशासन की कुंजी है।
समय से सभी को
न्याय मिले, न्याय व्यवस्था कम खर्चीली हो, सामान्य आदमी की भाषा समझ में निर्णय देने की व्यवस्था हो, और खासकर महिलाओं तथा कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय मिले, यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है —
राष्ट्रपति कोविन्द
राष्ट्रपति
रामनाथ कोविंद ने कहा कि न्याय मिलने में देर, एक तरह का अन्याय है।
न्याय बदले की भावना से प्रेरित नहीं होना चाहिये। न्याय
कभी भी हो सकता है, तत्काल भी होना चाहिये लेकिन यदि यह प्रतिशोध
के भाव से भरा है तो ऐसा नहीं होना चाहिये। मेरा ऐसा मानना है कि यदि न्याय बदला
लेता है तो वह अपने चरित्र को भी खो देता है।
कोई औरत अपने को
निर्वस्त्र तभी कर सकती है जब उसे लगे कि उसकी कोई इज्जत नहीं बची है। निजता उसकी
इज्जत है। उपन्यासकार ऐन रैंड ने कहा है कि सभ्यता समाज का निजता की ओर विकास है-
असभ्यों, जंगलियों की कोई निजता नहीं होती।
कुल मिलाकर, महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा और अन्याय को रोकने के लिए चौतरफा प्रयास की
जरूरत है। इसके लिए परिवार और समाज को जागरूक होना होगा, सरकार को अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, पुलिस को मुस्तैद रहना
होगा और लड़कियों का आत्मविश्वास बढ़ाना होगा।
एक इंसान की
जिंदगी से भी लंबी एक मुकदमे की जिंदगी होती है।
फ्रैंज काफ्का की
कहानी 'बिफोर द लॉ'
न्याय की गुहार करने वाले
एक ऐसे व्यक्ति की व्यथा कथा है,
जिसे अदालत के बाहर खड़ा
सुरक्षाकर्मी अदालत में प्रवेश करने से रोक देता है। परंतु अन्याय का शिकार पीड़ित
परिसर से बाहर नहीं निकलता है और अंदर प्रवेश कर न्याय पाने के लिए वहीं डटा रहता
है। अंत में उसकी मौत हो जाती है और वह सुरक्षाकर्मी बुदबुदाता है, 'यह दरवाजा तुम्हारे लिए था।'
(यानी न्याय पाने का
मृत्यु के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।) पांच-छह पृष्ठों की इस छोटी सी कहानी पर
जॉक दरीदा ने 70 पृष्ठों की आलोचना लिखी है, जिसमें उन्होंने सवाल
उठाया है कि कानून के समक्ष कौन है- न्याय की गुहार लगा रहा पीड़ित, सुरक्षा प्रहरी या न्यायाधीश। दरअसल, पूरी न्यायिक व्यवस्था
इतनी खर्चीली, दुरूह और लंबी खिंचने वाली है कि आम आदमी के
लिए न्याय पाना मात्र एक सपना है।
न्याय सभ्यता को
बर्बरता से अलग करता है। पॉल टिलिच ने प्यार, सत्ता और न्याय के
विश्लेषण में न्याय के मौलिक सम्मान पर ज़ोर देते हुए लिखा है कि ये तीनों उतने ही
पुराने हैं, जितने कि इंसान। उनके अनुसार प्यार मूलत:
बिछड़ों का मिलन है, जिसमें यह माना जाता है कि जो कभी साथ थे वे
अलग हो गए। सत्ता व्यक्ति की व्यक्ति के साथ अंत:क्रिया है, जो प्यार को प्राप्त करने की एक अनिवार्य प्रक्रिया है। और अंत में, न्याय सत्ता का वह स्वरूप है जो प्यार के अस्तित्व को बनाये रखता है। इस तरह
प्यार न्याय का अंतिम सिद्धांत है। किंतु न्याय कहीं मिलता नहीं है।
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